सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक।।४५१।।
अर्थ: सत्य अच्छे साथ में है, सिर्फ रोटी के टुकड़े में नहीं। कबीर दास को कहते हैं, कभी भी गलती न होने दें।
Meaning: The truth lies in the presence of good company, not just a piece of bread. Kabir says to the servant, never let the mistake happen.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर बताते हैं कि वास्तविक सत्य अच्छे संगति और सही मार्ग में छिपा है, न कि केवल भौतिक वस्तुओं जैसे रोटी के टुकड़े में। कबीर सलाह देते हैं कि गलती को कभी भी नहीं दोहराना चाहिए, ताकि जीवन में सच्चाई और अच्छाई बनी रहे। यह दोहा अच्छे संगति और जीवन के नैतिक पहलू को दर्शाता है।
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय।
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय।।४५२।।
अर्थ: अगर वे कहते हैं, तो कहो कि तुम जानते हो; गुरु की सीख लो। झूठे लोगों और कुत्तों को फिर से जवाब न दो।
Meaning: If they say, say you know; take the Guru's teaching. Don’t reply to the hypocrites and dogs again.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर सलाह देते हैं कि यदि कोई झूठा या कपटी व्यक्ति सवाल करता है, तो उसे अनदेखा करो और गुरु की शिक्षाओं पर ध्यान दो। झूठे लोगों और कुत्तों को जवाब देने का कोई लाभ नहीं है क्योंकि वे सच्चाई को समझने में असमर्थ होते हैं। यह दोहा गुरु की शिक्षाओं की महत्वता और झूठे लोगों से बचने के महत्व को दर्शाता है।
विषय वासना उरझि कर, जनम गंवाया बाद।
अब पछितावा क्या करै, निज करनी कर याद।।४५३।।
अर्थ: विषय वासना में उलझकर, जीवन को बर्बाद कर दिया। अब पछताने से क्या लाभ? अपनी करनी को याद रखो।
Meaning: Involved in sensual desires, life has been wasted. Now what is the use of regret? Remember your own actions.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर यह बताते हैं कि यदि व्यक्ति अपनी इच्छाओं और वासनाओं में उलझा रहता है, तो उसका जीवन व्यर्थ चला जाता है। जब जीवन समाप्त हो जाता है, तो पछताने का कोई लाभ नहीं होता। महत्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपनी करनी और कर्मों को याद रखे और सही मार्ग पर चले। यह दोहा जीवन की व्यर्थता और पछतावे के महत्व को दर्शाता है।
सोना सज्जन साधुजन, टूट जुड़े सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धक्का दरार।।४५४।।
अर्थ: सोना और सज्जन साधु लोग सौ बार टूटकर भी जुड़ सकते हैं। लेकिन दुष्ट व्यक्ति, जैसे कुम्हार का घड़ा, एक ही धक्के से टूट जाता है।
Meaning: Gold and virtuous saints may break and rejoin a hundred times. The wicked, like a clay pot, breaks with a single blow.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर यह कहते हैं कि सज्जन और पुण्यशील लोग चाहे कितनी भी कठिनाइयों का सामना करें, वे फिर भी एकजुट हो जाते हैं। इसके विपरीत, दुष्ट और बुरे लोग अत्यंत कमजोर होते हैं और एक छोटी सी कठिनाई से ही टूट जाते हैं। यह दोहा व्यक्ति की आंतरिक शक्ति और दुष्टता की कमजोरी को दर्शाता है।
मरण भला तब जानिए, छूट जाए हंकार।
जग की मरनी क्यों मरें, दिन में सौसौ बार।।४५५।।
अर्थ: मृत्यु तब समझी जाती है जब अहंकार छूट जाए। दुनियावी मृत्यु का क्या उपयोग, दिन में सौ-सौ बार?
Meaning: Death is only understood when pride is shed. Why die the worldly death, a hundred times a day?
व्याख्या: इस दोहे में कबीर यह बताते हैं कि वास्तविक मृत्यु तब होती है जब व्यक्ति का अहंकार समाप्त हो जाता है। सांसारिक मृत्यु का कोई महत्व नहीं है क्योंकि यह बार-बार होती रहती है। असली मृत्यु का अर्थ है आत्मा की निर्भीकता और अहंकार का त्याग। यह दोहा जीवन की सच्ची मृत्यु और अहंकार के महत्व को दर्शाता है।
साधो रण में मिट रहा, टूटन दे हंकार।
जग की मरनी क्यों मरें, दिन में सौसौ बार।।४५६।।
अर्थ: साधू लोग युद्ध में मिट जाते हैं, अपने अहंकार को छोड़ देते हैं। दुनियावी मृत्यु का क्या उपयोग, दिन में सौ-सौ बार?
Meaning: The saints are destroyed in battle, relinquishing their pride. Why die the worldly death, a hundred times a day?
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने बताया है कि साधू लोग अपने अहंकार को छोड़कर जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हैं। इसलिए, सांसारिक मृत्यु का कोई महत्व नहीं है क्योंकि यह बार-बार होती रहती है। असली मृत्यु का अर्थ है अहंकार का परित्याग और आत्मिक शुद्धता। यह दोहा साधुओं के त्याग और जीवन की वास्तविक मृत्यु पर प्रकाश डालता है।
बहता पानी निर्मला, बंधे सो गंदा होए।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय।।४५७।।
अर्थ: बहता हुआ पानी शुद्ध होता है, लेकिन जो पानी बंधा रहता है वह गंदा हो जाता है। जो साधू भटकते हैं, वे पुण्यशील होते हैं, उन पर कोई दाग नहीं लगता।
Meaning: Flowing water is pure, but water that is contained becomes dirty. The saint who wanders is virtuous, no stain attaches to him.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर यह बताते हैं कि बहता हुआ पानी स्वच्छ रहता है जबकि बंद पानी गंदा हो जाता है। इसी प्रकार, जो साधू व्यक्ति स्वतंत्र रूप से घूमते हैं और ज्ञान की खोज में रहते हैं, वे शुद्ध रहते हैं और उन पर कोई दाग नहीं लगता। यह दोहा जीवन की शुद्धता और स्वतंत्रता के महत्व को दर्शाता है।
गगन दमामा बाजिया, पड़े निसाने घाव।
खेत बुहारे सूरमा, मोहे मरण का चाव।।४५८।।
अर्थ: आसमान ढोलों से गूंज रहा है, लेकिन घावों के निशान बने रहते हैं। खेत योद्धाओं द्वारा हल चलाया जाता है, मुझे मृत्यु की लालसा है।
Meaning: The sky reverberates with drums, but the marks of wounds remain. The field is ploughed by warriors, I yearn for death.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने युद्ध की ध्वनि और उसके घावों के निशानों की तुलना की है। वे मृत्यु की इच्छा प्रकट करते हैं, जो जीवन के संघर्ष और युद्ध की तात्कालिकता को दर्शाता है। कबीर का यह दोहा जीवन की यथार्थता और मृत्यु की इच्छा को स्पष्ट करता है।
सूरा सोई सराहिये, लड़े मुक्ति के हेत।
पुर्जा पुर्जा कट पड़े, तो भी ना छाड़े खेत।।४५९।।
अर्थ: वीर व्यक्ति की सराहना की जाती है, जो मुक्ति के लिए लड़ता है। अगर वह टुकड़े-टुकड़े हो जाए, फिर भी वह खेत नहीं छोड़ता।
Meaning: The brave person is praised, who fights for liberation. Even if torn piece by piece, he does not abandon the field.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने वीरता की सराहना की है, जो मुक्ति के लिए संघर्ष करता है। चाहे वह टुकड़े-टुकड़े हो जाए, फिर भी वह अपने कर्मक्षेत्र को नहीं छोड़ता। यह दोहा साहस और दृढ़ता के महत्व को दर्शाता है, जो मुक्ति के लिए आवश्यक है।
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक।
जो पाई भीतर लखि परै,भीतर बाहर एक।।४६०।।
अर्थ: भीतर कोई भेद नहीं है, लेकिन बाहर अनेक हैं। जो भीतर पाया जाता है, वही बाहर होता है।
Meaning: Inside, there is no difference, but outside there are many. What is found inside is the same as outside.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने भीतर और बाहर के भेद की बात की है। वह बताते हैं कि आंतरिक और बाहरी अस्तित्व में कोई अंतर नहीं है; जो भीतर पाया जाता है, वही बाहरी दुनिया में भी होता है। यह दोहा आत्मा की एकता और बाहरी भिन्नताओं की अनासक्ति को दर्शाता है।
जल में बसे कुमुदनी, चंदा बसे अकास।
जैसी जिसकी भावना, सो ताही के पास।।४६१।।
अर्थ: कमल जल में बसता है, चाँद आकाश में। प्रत्येक वस्तु अपनी स्वाभाविक जगह पर रहती है।
Meaning: The lotus dwells in the water, the moon in the sky. Each stays where it belongs according to its nature.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर यह बताते हैं कि जैसे कमल जल में और चाँद आकाश में बसता है, वैसे ही हर वस्तु अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहती है। यह जीवन में आत्मिक स्थिरता और स्वाभाविक स्थान की खोज को दर्शाता है।
ज्ञानी भूले ज्ञान कथि, निकट रहा निज रूप।
बाहिर खोजै बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।।४६२।।
अर्थ: ज्ञानी लोग ज्ञान का सार भूल जाते हैं, अपने स्वभाव के करीब रहते हैं। वे बाहर खोजते हैं, जबकि वस्तु भीतर होती है।
Meaning: The wise forget the essence of knowledge, remaining close to their own nature. They search outside, while the essence is within.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने ज्ञानी और ज्ञान की वास्तविकता के बीच के अंतर को बताया है। ज्ञानी लोग बाहरी दुनिया में ज्ञान की खोज करते हैं, जबकि वास्तविक ज्ञान और आत्मा की सच्चाई भीतर ही होती है। यह दोहा आंतरिक खोज और आत्म-ज्ञान के महत्व को दर्शाता है।
आपा मेटे हरि मिले, हरि मेटे सब जाई।
अकथ कहानी प्रेम की, कोई नहीं पतियाय।।४६३।।
अर्थ: जब आत्मा मिट जाती है, तो भगवान मिलते हैं। जब भगवान को समझ लिया जाता है, तो सब कुछ धुंधला हो जाता है। प्रेम की कहानी शब्दों से परे है; कोई इसे समझ नहीं पाता।
Meaning: When the self is erased, one meets the Divine. When the Divine is realized, everything else fades away. The story of love is beyond words; no one understands it.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने प्रेम की गहराई और आत्मा के परमात्मा के साथ मिलन की प्रक्रिया को दर्शाया है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा को मिटा देता है और भगवान को प्राप्त करता है, तो संसार की सारी चीजें महत्वहीन हो जाती हैं। प्रेम की वास्तविकता और उसकी रहस्यमयता को शब्दों में नहीं समझा जा सकता, इसलिए यह कथा केवल अनुभव के माध्यम से ही समझी जा सकती है।
जिहि घट प्रीति न प्रेम रस, पुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि भए बेकाम।।४६४।।
अर्थ: जिस शरीर में प्रेम रस नहीं है, वहाँ जुबान भी राम का स्वाद नहीं ले सकती। इस संसार में जो प्रेम की कमी रखते हैं, वे व्यर्थ हो जाते हैं।
Meaning: In the body where there is no love or the essence of love, the tongue cannot taste the Divine. Those who lack this love in this world, become useless.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने प्रेम और दिव्य अनुभूति के महत्व को स्पष्ट किया है। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति के शरीर में प्रेम का रस नहीं होता, उसकी जुबान भी भगवान का स्वाद नहीं ले सकती। प्रेम के बिना, जीवन निरर्थक हो जाता है। यह दोहा प्रेम की अनिवार्यता और उसकी दिव्यता को दर्शाता है।
राम नाम कड़वा लगे, मीठा लागे दाम।
दुविधा में दोनों गए, माया मिली ना राम।।४६५।।
अर्थ: राम का नाम कड़वा लग सकता है, जबकि पैसा मीठा लगता है। इन दोनों के बीच दुविधा में, न तो माया मिलती है और न ही राम का नाम प्राप्त होता है।
Meaning: The name of Ram may seem bitter, while money seems sweet. In the dilemma of both, neither the illusion of wealth nor the name of Ram is attained.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने राम के नाम और धन के बीच की तुलना की है। उन्होंने बताया कि राम का नाम अक्सर कड़वा लगता है जबकि धन मीठा लगता है। जब लोग इन दोनों के बीच फंस जाते हैं, तो न तो माया को छोड़ पाते हैं और न ही राम के नाम को प्राप्त कर पाते हैं। यह दोहा सांसारिक इच्छाओं और आध्यात्मिक लक्ष्य के बीच संघर्ष को दर्शाता है।
भागे भला न होएगा, कहा धरोगे पाव।
सिर सौंपो सीधे लड़ो, काहे करौ कुदाव।।४६६।।
अर्थ: भागने से कुछ भला नहीं होगा, तुम अपने पैरों से कहाँ जाओगे? सिर को समर्पित करो और सीधे लड़ो, मूर्खता क्यों दिखाते हो?
Meaning: Running away will not do any good, where will you go with your feet? Surrender your head and fight directly, why act foolishly?
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने भागने और समस्याओं से बचने की बजाय, समस्याओं का सीधे सामना करने की सलाह दी है। उन्होंने कहा कि भागने से कुछ भी हासिल नहीं होगा, इसलिए अपनी समस्याओं का सामना सीधे तौर पर करना चाहिए। सिर को समर्पित करके और पूरी ताकत से लड़कर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। यह दोहा साहस और समर्पण की महत्वपूर्णता को दर्शाता है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।।४६७।।
अर्थ: गुरु और गोविंद दोनों खड़े हैं, मैं किसे प्रणाम करूँ? मैं गुरु को सलाम करता हूँ जिन्होंने मुझे गोविंद (ईश्वर) की दृष्टि दी।
Meaning: Both Guru and Govind are standing, to whom should I bow? I am devoted to the Guru who has given me the vision of Govind (God).
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु और भगवान के बीच के संबंध को दर्शाया है। उन्होंने बताया कि गुरु और भगवान दोनों महत्वपूर्ण हैं, लेकिन गुरु का स्थान विशेष है क्योंकि वही हमें भगवान का दर्शन कराते हैं। इसलिए, गुरु को प्रणाम करना सबसे महत्वपूर्ण है। यह दोहा गुरु की महिमा और उनके योगदान को स्वीकार करता है।
गुरु नारायन रूप है, गुरु ज्ञान को घाट।
सतगुरु बचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट।।४६८।।
अर्थ: गुरु नारायण का रूप है और ज्ञान का स्रोत है। सच्चे गुरु की वाणी की महिमा से, मन की असंतोषिता दूर हो जाती है।
Meaning: The Guru is the form of Narayan (God) and the source of knowledge. By the glory of the true Guru's words, the mind's dissatisfaction is removed.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के महत्व को उजागर किया है। गुरु को नारायण का रूप और ज्ञान का स्रोत माना गया है। सच्चे गुरु की शिक्षाओं की महिमा से मन की निराशा और असंतोष समाप्त हो जाता है। यह दोहा गुरु की शिक्षाओं और उनके प्रभाव को स्वीकार करता है।
जैसी प्रीति कुटुंब की, तैसी गुरु सों होय।
कहें कबीर ता दास को, पला न पकड़े कोय।।४६९।।
अर्थ: परिवार के प्रति जो प्रेम होता है, वही प्रेम गुरु के प्रति होना चाहिए। कबीर कहते हैं कि सच्चा शिष्य किसी भी चीज़ से नहीं रोका जाता।
Meaning: The love one has for family should be the same as that for the Guru. Kabir says that the true disciple is not held back by anything.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के प्रति प्रेम और सम्मान की बात की है। उन्होंने परिवार के प्रति जो प्रेम होता है, वही प्रेम गुरु के प्रति होना चाहिए। सच्चा शिष्य गुरु की भक्ति और शिक्षाओं के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होता है और किसी भी बाधा से प्रभावित नहीं होता। यह दोहा गुरु के प्रति सच्चे प्रेम और निष्ठा को दर्शाता है।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरु दीन्हीं दान।।४७०।।
अर्थ: गुरु के समान कोई दाता नहीं है, और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है। तीन लोकों की संपदा गुरु द्वारा दान की जाती है।
Meaning: There is no giver like the Guru, and no seeker like the disciple. The wealth of the three worlds is given as a gift by the Guru.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की महानता और उनके दान की व्यापकता को व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि गुरु जैसा कोई दाता नहीं हो सकता और शिष्य जैसा कोई याचक नहीं हो सकता। गुरु सभी चीजों की संपत्ति, जो तीनों लोकों में है, को शिष्यों को दान देते हैं। यह दोहा गुरु के महत्व और उनके द्वारा किए गए अनमोल दान को दर्शाता है।
गुरु को मानुष जानते, ते नर कहिए अन्ध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फन्द।।४७१।।
अर्थ: जो गुरु को एक मानव मानते हैं, वे अंधे होते हैं। इस दुःखद संसार में, वे मृत्यु के जाल में फंसे होते हैं।
Meaning: Those who recognize the Guru as a human are blind. In this world of suffering, they are trapped in the snare of death.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की वास्तविकता को समझने में असफल लोगों की आलोचना की है। उन्होंने कहा है कि जो लोग गुरु को केवल एक सामान्य मानव मानते हैं, वे अंधे हैं और इस संसार के दुखों में फंसे हुए हैं। वे मृत्यु के जाल में फंस जाते हैं। यह दोहा गुरु के प्रति सच्ची समझ और उनके अद्वितीय स्थान की आवश्यकता को दर्शाता है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संंत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।४७२।।
अर्थ: गुरु पारस के समान है, जिसे सभी संत जानते हैं। वह लोहा को सोना बना देता है, और महंत इसका रस लेते हैं।
Meaning: The Guru is like a philosopher's stone, known by all saints. He turns iron into gold, and the wise take his essence.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर गुरु की विशेषता को पारस की तरह वर्णित करते हैं। पारस एक ऐसा पत्थर है जो लोहे को सोने में बदल देता है। इसी तरह, गुरु भी अपने शिष्य को उच्च आध्यात्मिक स्थिति में पहुंचाते हैं। यह दोहा गुरु की शक्ति और महत्व को दर्शाता है, जिसे समझकर सही मार्ग पर चलना चाहिए।
गुरु की आज्ञा आवई, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत है, आवागमन नशाय।।४७३।।
अर्थ: गुरु की आज्ञा को मानना मोक्ष की प्राप्ति कराता है, और इसी प्रकार व्यक्ति जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
Meaning: Obedience to the Guru's command brings liberation, and thus one is free from the cycle of birth and death.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की आज्ञा का पालन करने के महत्व को बताया है। उन्होंने कहा है कि गुरु की आज्ञा का पालन करने से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जिससे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है। यह दोहा यह दर्शाता है कि गुरु की कृपा से ही आत्मा को अंतिम मुक्ति मिलती है।
गुरु महिमा गावत सदा, मन राखे अति मोद।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद।।४७४।।
अर्थ: गुरु की महिमा का सदैव गान करना और मन को अत्यधिक खुशी में रखना, व्यक्ति को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त कर देता है और प्रभु की गोद में स्थिर कर देता है।
Meaning: Constantly singing the glory of the Guru, and keeping the mind in great joy, one does not return to the cycle of rebirth but remains in the Lord’s embrace.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की महिमा गाने और मन को आनंदित रखने की बात की है। उन्होंने बताया है कि जो व्यक्ति गुरु की महिमा का निरंतर गान करता है और अपने मन को खुशी में रखता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह व्यक्ति भगवान की गोदी में स्थिर हो जाता है।
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय।
जेहि विधि गुरु सों प्रीति है, कीजे सोइ उपाय।।४७५।।
अर्थ: साधु और संतों, सुनो कबीर समझाते हैं: गुरु से प्रेम की विधि अपनाओ और जो सिखाया जाए, वही करो।
Meaning: Listen, saints and sages, Kabir speaks to explain: Follow the method of love for the Guru, and do as you are taught.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने संतों और साधुओं को गुरु से प्रेम की विधि अपनाने की सलाह दी है। उन्होंने बताया है कि गुरु से प्रेम करना ही सही मार्ग है और इसी विधि से जीवन को सही दिशा मिलती है। यह दोहा यह भी बताता है कि जो गुरु ने सिखाया है, उसे अपनाकर ही आत्मा की उन्नति संभव है।
गुरु गोविन्द करि जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तो दण्डवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय।।४७६।।
अर्थ: गुरु को भगवान और पालनहार के रूप में पहचानो। जब उनसे मिलो, तो दंडवत प्रणाम करो, केवल पल-पल ध्यान करने से काम नहीं चलेगा।
Meaning: Recognize the Guru as the Lord and the Sustainer. When you meet him, offer obeisance and not just practice meditation every moment.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु को भगवान और पालनहार के रूप में मानने की सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि गुरु के सामने जाकर दंडवत प्रणाम करना ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय हर समय ध्यान लगाने के। यह दोहा गुरु के प्रति श्रद्धा और सम्मान को व्यक्त करता है और सच्चे श्रद्धालु का आचरण क्या होना चाहिए, इसे स्पष्ट करता है।
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत।।४७७।।
अर्थ: गुरु के साथ प्रेम बनाए रखें जैसे संत अपने प्रेम को बनाए रखते हैं। प्रेम के बिना यह दूर है, प्रेम के साथ गुरु निकट है।
Meaning: Maintain love with the Guru as saints maintain their love. Without love, it is distant; with love, the Guru is near.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के साथ प्रेम बनाए रखने की बात की है, जैसे संत अपने प्रेम को बनाए रखते हैं। उन्होंने कहा है कि प्रेम के बिना गुरु दूर लगते हैं, जबकि प्रेम के साथ गुरु निकट हो जाते हैं। यह दोहा प्रेम की शक्ति और गुरु के साथ संबंध की महत्वपूर्णता को दर्शाता है।
तन मन ताको दीजिए, जोको विषया नाहि।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब माहिं।।४७८।।
अर्थ: अपना शरीर और मन उस व्यक्ति को दीजिए जो इच्छाओं से मुक्त है। बाकी सब कुछ छोड़कर केवल मालिक को ही रखें।
Meaning: Give your body and mind to the one who is free from desires. Leave all else and keep only the Master.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने उस व्यक्ति को अपना शरीर और मन समर्पित करने की सलाह दी है, जो इच्छाओं से मुक्त हो। बाकी सब वस्तुओं को छोड़कर केवल गुरु को ही अपने जीवन में स्थान देने की बात की है। यह दोहा गुरु की अनंतता और समर्पण के महत्व को दर्शाता है।
गुरु शरणागत छाड़ि के, करै भरोसा और।
सुख सम्पति को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।४७९।।
अर्थ: गुरु की शरण छोड़कर औरों पर भरोसा करने से सुख और संपत्ति को छोड़ना पड़ता है, और ऐसा व्यक्ति नरक में ठौर नहीं पाता।
Meaning: Leaving the refuge of the Guru and relying on others leads to abandoning happiness and wealth, and there is no place in hell for such a person.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की शरण छोड़कर दूसरों पर भरोसा करने के परिणामों को बताया है। उन्होंने कहा है कि ऐसा व्यक्ति सुख और संपत्ति को खो देता है और नरक में भी उसकी जगह नहीं होती। यह दोहा गुरु के प्रति शरणागत भाव रखने की महत्वता को दर्शाता है और बताता है कि गुरु की शरण में रहना ही सही मार्ग है।
कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि के रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।४८०।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जो गुरु को केवल एक मानव मानते हैं, वे अंधे हैं। जहां भगवान नाराज हो सकते हैं, वहां गुरु नाराज नहीं होते।
Meaning: Kabir says that those who call the Guru a mere mortal are blind. While there is a place where the Lord might be displeased, there is no place where the Guru would be displeased.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के महत्व को बताया है और कहा है कि जो गुरु को केवल एक मानव मानते हैं, वे अंधे हैं। भगवान की नाराजगी की एक जगह हो सकती है, लेकिन गुरु की नाराजगी की कोई जगह नहीं होती। यह दोहा गुरु के अनंत और अपार प्रेम को दर्शाता है, जो कभी भी नाराज नहीं होता।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर।।४८१।।
अर्थ: गुरु चंद्रमा के समान है और शिष्य की आँखें चकोर के समान हैं। शिष्य दिन-रात गुरु के रूप को निहारते रहते हैं।
Meaning: The Guru is like the moon, and the disciple’s eyes are like the chakor bird. The disciple remains gazing at the Guru’s form throughout the day and night.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु और शिष्य के संबंध को चंद्रमा और चकोर की उपमा दी है। चकोर पक्षी चंद्रमा की ओर हमेशा देखता रहता है, इसी तरह शिष्य भी गुरु के प्रति अपनी अटूट भक्ति और प्रेम प्रकट करता है। यह दोहा गुरु के प्रति शिष्य की निरंतर निष्ठा और समर्पण को दर्शाता है।
कहैं कबीर तजि भरम को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहँ गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव।।४८२।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि भ्रांति को छोड़ दो और गुरु के चरणों को पकड़ो। अहंकार को त्यागकर गुरु के चरणों में शरण लेने से जीव जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
Meaning: Kabir says to abandon delusions, as the child (soul) should hold onto the Guru’s feet. By forsaking ego and taking refuge in the Guru’s feet, one can be freed from the cycle of birth and death.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने भ्रांति और अहंकार को त्यागने की बात की है। वे कहते हैं कि गुरु के चरणों में शरण लेने से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार गुरु की शरण में जाकर अहंकार को छोड़ना और सच्चे मार्ग पर चलना जीवन को जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देता है।
गुरु सों ज्ञान जो लीजिए, सीस दीजिए दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान।।४८३।।
अर्थ: गुरु से ज्ञान प्राप्त करते समय अपने सिर को दान में दें। बहुत से लोग अहंकार के कारण भटक गए हैं, इसलिए आत्मा की सुरक्षा के लिए विनम्रता से पेश आएं।
Meaning: When receiving knowledge from the Guru, offer your head as a donation. Many have gone astray due to pride, so protect the soul by offering humility.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को सरलता से समझाया है। उन्होंने कहा कि गुरु से ज्ञान प्राप्त करते समय अपना अहंकार छोड़कर पूर्ण समर्पण के साथ गुरु की शरण में रहना चाहिए। अहंकार के कारण बहुत से लोग गलत मार्ग पर चले जाते हैं, इसलिए विनम्रता और श्रद्धा के साथ गुरु की सेवा करनी चाहिए।
गुरु गोविन्द दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटैं हरि भजैं, तब पावे दीदार।।४८४।।
अर्थ: गुरु और भगवान एक ही हैं; अन्य सभी रूप क्षणिक हैं। अहंकार को दूर करके भगवान की पूजा करने से दिव्य दर्शन प्राप्त होते हैं।
Meaning: Guru and God are one; all other forms are transient. By eliminating the ego and worshiping the Lord, one can attain the vision of the divine.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु और भगवान की एकता को बताया है। उन्होंने कहा है कि गुरु और भगवान एक ही तत्व हैं, और सभी अन्य रूप अस्थायी हैं। अहंकार को समाप्त करके और भगवान की पूजा करके, व्यक्ति सच्चे दिव्य दर्शन को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार, गुरु के माध्यम से भगवान का अनुभव होता है।
जल परमानै माछली, कुल परमानै सुद्धि।
जाको जैसा गुरु मिला, ताको तैसी बुद्धि।।४८५।।
अर्थ: मछली जल में रहती है और जल से ही उसका जीवन चलता है, उसी प्रकार कुल की शुद्धि का पालन किया जाता है। व्यक्ति की बुद्धि उस गुरु की प्रकृति को दर्शाती है जो उसे मिला है।
Meaning: Just as fish live in water and are sustained by it, purity is upheld by the essence of the family lineage. The intelligence of a person reflects the nature of the Guru they have found.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के प्रभाव को मछली और जल के संबंध से जोड़ा है। जैसे मछली जल में रहती है और उसी से उसकी जिंदगी चलती है, वैसे ही गुरु के प्रभाव से व्यक्ति की बुद्धि और समझदारी विकसित होती है। गुरु की गुण और सिखाने का तरीका ही शिष्य की बुद्धि को आकार देता है।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल।।४८६।।
अर्थ: अज्ञानी और ज्ञानी, संतान और माता-पिता सभी समर्थन और देखभाल करते हैं। व्यक्ति को अपनी खुद की चाल पर ध्यान देना चाहिए और अपने मार्ग का पालन करना चाहिए।
Meaning: The ignorant and the wise, sons and parents, all provide support and care. One should focus on their own conduct and follow their own path.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया है। उन्होंने कहा कि चाहे कोई अज्ञानी हो या ज्ञानी, संतान हो या माता-पिता, सभी व्यक्ति का पालन और देखभाल करते हैं। परंतु, व्यक्ति को अपनी खुद की दिशा और चाल पर ध्यान देना चाहिए और स्वयं के मार्ग पर चलना चाहिए। यह आत्मनिर्भरता और स्वाधीनता की ओर संकेत करता है।
पंडित पढि़ गुनि पचि मुये, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त सब्द परमान।।४८७।।
अर्थ: पंडित बहुत पढ़ते हैं और ज्ञान प्राप्त करते हैं, लेकिन गुरु के बिना सच्चा ज्ञान नहीं मिल सकता। ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है; सत्य केवल शब्दों से परे है।
Meaning: The learned scholar may read and know many scriptures, but without the Guru, true knowledge is unattainable. Without knowledge, liberation is not possible; truth is beyond mere words.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के बिना सच्चे ज्ञान की प्राप्ति की कठिनाई को व्यक्त किया है। पंडित और विद्वान किताबों का अध्ययन करके बहुत कुछ जानते हैं, लेकिन सच्चा ज्ञान गुरु के बिना प्राप्त नहीं होता। ज्ञान की प्राप्ति और मुक्ति के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। सत्य को केवल शब्दों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता।
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान।।४८८।।
अर्थ: गुरु को श्रद्धा और अनगिनत प्रणाम अर्पित करें। एक कीट भी भृंग को नहीं पहचानता, इसलिए गुरु को एक दिव्य प्राणी के रूप में सम्मानित करना चाहिए।
Meaning: Offer reverence and countless salutations to the Guru. Even a bug does not recognize a bee, so the Guru is to be revered as a divine being.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु को अत्यधिक सम्मान देने की बात की है। जैसे कीट भृंग को नहीं पहचानता, वैसे ही गुरु के महत्व और उनकी दिव्यता को पूरी तरह से समझना कठिन होता है। गुरु को अनगिनत प्रणाम और श्रद्धा अर्पित करनी चाहिए, क्योंकि वे हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास।।४८९।।
अर्थ: ज्ञान, प्रेम, सुख, दया, भक्ति और विश्वास एकत्रित होते हैं। गुरु की सेवा के माध्यम से, व्यक्ति सद्गुरु के चरणों में निवास प्राप्त करता है।
Meaning: Knowledge, love, happiness, compassion, devotion, and trust come together. Through the service of the Guru, one attains the dwelling in the feet of the True Guru.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की सेवा और गुरु के चरणों में निवास के महत्व को बताया है। ज्ञान, प्रेम, सुख, दया, भक्ति और विश्वास ये सभी गुण गुरु की सेवा के माध्यम से प्राप्त होते हैं। जब कोई व्यक्ति सच्चे गुरु की सेवा करता है, तो उसे इन सभी गुणों का मिलन होता है और वह गुरु के चरणों में निवास प्राप्त करता है, जो जीवन की पूर्णता का प्रतीक है।
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।।४९०।।
अर्थ: मूल ध्यान गुरु के रूप में है, मूल पूजा गुरु के पांवों में है। मूल नाम गुरु के वचन में है, और मूल सत्य गुरु के उपदेशों की भावना में है।
Meaning: The root of meditation is the form of the Guru; the root of worship is the Guru's feet. The root of the name is the Guru’s word, and the root of truth is the essence of the Guru’s teachings.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के महत्व को विभिन्न पहलुओं से समझाया है। ध्यान का मूल गुरु के रूप में होता है, पूजा का मूल गुरु के पांवों में होता है, नाम का मूल गुरु के वचन में होता है, और सत्य का मूल गुरु के उपदेशों की भावना में होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि गुरु की उपस्थिति और उनकी शिक्षाएँ जीवन के सभी महत्वपूर्ण तत्वों का केंद्र हैं।
सब धरती कागद करुं, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करुं, गुरु गुण लिखा न जाय।।४९१।।
अर्थ: यदि पूरी धरती कागज हो और सभी पेड़ कलम हो, और सात समुद्र स्याही हो, फिर भी गुरु के गुणों को नहीं लिखा जा सकता।
Meaning: If the entire earth were paper, and all the trees were pens, and if the seven seas were ink, still the virtues of the Guru could not be written.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की महिमा और गुणों के अनंतता को व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि यदि सभी धरती को कागज, पेड़ों को कलम, और समुद्र को स्याही मान लिया जाए, तब भी गुरु के गुणों को पूरी तरह से लिखा नहीं जा सकता। यह गुरु की महानता और अद्वितीयता को दर्शाता है।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कछु नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं।।४९२।।
अर्थ: गुरु का रूप सामने खड़ा है, दो भेद कुछ भी नहीं हैं। उनके चरणों में प्रणाम करने से, समस्त अंधकार मिट जाता है।
Meaning: The form of the Guru stands ahead; there is no distinction between the two. By bowing to Him, all darkness is dispelled.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की उपस्थिति और उनके प्रभाव को स्पष्ट किया है। उन्होंने बताया है कि गुरु का रूप हमेशा हमारे सामने होता है और उनके सामने कोई भेद नहीं होता। जब हम गुरु के चरणों में प्रणाम करते हैं, तो समस्त अंधकार और भ्रम समाप्त हो जाते हैं, जिससे ज्ञान और स्पष्टता प्राप्त होती है।
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि।
शीष भाव सुत जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि।।४९३।।
अर्थ: यदि गुरु पूर्ण होते हैं, तो वे सिर की भेंट को स्वीकार करते हैं। जो व्यक्ति अपना सिर अर्पित करता है (या विनम्र होता है), उसे श्रेष्ठ शिष्य माना जाता है।
Meaning: If the Guru is complete, he accepts the offering of the head (or humility). One who offers his head (or is humble) is considered the best disciple.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु की पूर्णता और विनम्रता के महत्व को दर्शाया है। जब गुरु पूर्ण होते हैं, वे अपने शिष्य की विनम्रता को स्वीकार करते हैं। विनम्रता और आत्मसमर्पण के साथ गुरु के चरणों में सिर अर्पित करने वाला शिष्य श्रेष्ठ माना जाता है। यह शिष्य की सच्ची भक्ति और समर्पण को दर्शाता है।
गुरु को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं।।४९४।।
अर्थ: गुरु को सिर पर रखें (या गुरु का सम्मान करें), और उनकी आज्ञाओं का पालन करें। कबीर कहते हैं, गुरु के सेवक को तीन लोकों में कोई भय नहीं होता।
Meaning: Keep the Guru on your head (or respect the Guru), and follow His commands. Says Kabir, the servant of the Guru, there is no fear in the three worlds.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के प्रति सम्मान और उनकी आज्ञाओं का पालन करने के महत्व को बताया है। उन्होंने कहा है कि जब हम गुरु को अपने सिर पर रखते हैं और उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तो हमें तीन लोकों में किसी भी भय का सामना नहीं करना पड़ता। यह गुरु के प्रति पूर्ण सम्मान और विश्वास को दर्शाता है।
गुरु सेवा जन बन्दगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवे भाग।।४९५।।
अर्थ: गुरु की सेवा, हरि की याद, और वैराग्य। जब ये चारों प्राप्त होते हैं, तब व्यक्ति का भाग्य पूरा होता है।
Meaning: Service to the Guru, remembrance of Hari, and renunciation. When these four are achieved, one’s destiny is fulfilled.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने जीवन की पूर्णता के लिए चार महत्वपूर्ण तत्वों की बात की है। गुरु की सेवा, हरि का स्मरण, और वैराग्य (त्याग) जब इन चारों को अपनाया जाता है, तब जीवन का भाग्य पूरा होता है। ये तत्व आत्मा के उन्नयन और सच्ची पूर्णता की दिशा में मार्गदर्शक होते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।४९६।।
अर्थ: गुरु कुम्हार के समान हैं और शिष्य एक घड़ा है। गुरु शिष्य को आकार देते हैं और दोषों को दूर करते हैं। गुरु आंतरिक रूप से सहारा देते हैं जबकि बाहरी रूप को संवारते हैं।
Meaning: The Guru is like a potter and the disciple is like a pot. The Guru shapes the disciple, removing imperfections. He supports from within while the outer form is molded.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु और शिष्य के संबंध को कुम्हार और घड़े के उदाहरण से दर्शाया है। जैसे कुम्हार घड़े को आकार देता है और उसकी खामियों को दूर करता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य को सही दिशा में मार्गदर्शन कर उसकी कमजोरियों को दूर करते हैं। गुरु का समर्थन आंतरिक रूप से होता है, जबकि बाहरी रूप को सुधारने का कार्य भी गुरु की भूमिका का हिस्सा है।
कबीर हरि के रूठते, गुरु के शरणै जाय।
कहैं कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय।।४९७।।
अर्थ: जब हरि (ईश्वर) नाराज होते हैं, तो गुरु की शरण में जाओ। कबीर कहते हैं, जब गुरु नाराज होते हैं, तो हरि भी मदद नहीं कर सकते।
Meaning: When Hari (God) is displeased, seek refuge in the Guru. Says Kabir, when the Guru is displeased, even Hari cannot help.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर ने गुरु के महत्व को सामने रखा है। उन्होंने कहा है कि जब भगवान नाराज होते हैं, तो गुरु की शरण लेना सबसे अच्छा होता है। लेकिन अगर गुरु नाराज होते हैं, तो भगवान भी मदद नहीं कर सकते। यह गुरु के प्रति सम्मान और उनकी अनिवार्यता को दर्शाता है, यह दिखाते हुए कि गुरु के बिना, दिव्य सहायता भी संभव नहीं हो सकती।
चारि खानि में भरमता, कबहु न लगता पार।
सो फेरा सब मिटि गया, सतगुरु के उपकार।।४९८।।
अर्थ: व्यक्ति चारों योनियों में भटकता रहता है लेकिन उसे कभी पार नहीं मिलती। इस भटकाव को सतगुरु की कृपा से समाप्त किया जा सकता है।
Meaning: One wanders through the four realms but never finds peace. All this wandering is eliminated through the grace of the True Guru.
व्याख्या: यह दोहा बताता है कि मानव जीवन में चारों योनियों में भटकने के बावजूद भी सच्चा शांति और मोक्ष प्राप्त नहीं होता। सतगुरु की कृपा और मार्गदर्शन से ही यह भटकाव समाप्त होता है और आत्मा को शांति मिलती है।
बिन सद्गुरु बाचै नहीं, फिर बूड़े भव मांहि।
भौसागर की त्रास से, सतगुरु पकड़े बाहि।।४९९।।
अर्थ: सतगुरु के बिना, व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से नहीं बच सकता। सतगुरु आपके हाथ को पकड़कर संसार के भय से बचाते हैं।
Meaning: Without the True Guru, one cannot escape the cycle of birth and death. The True Guru holds your hand to save you from the fear of the worldly ocean.
व्याख्या: यह दोहा बताता है कि जीवन के भौतिक संसार के भय और जन्म-मृत्यु के चक्र से बचने के लिए सतगुरु की आवश्यकता होती है। सतगुरु हमें मार्गदर्शन प्रदान करते हैं और इस संसार के डर से हमें बचाते हैं।
चित चोखा मन निरमला, बुधि उत्तम मति धीर।
सो धोखा नहिं बिरहहीं, सतगुरु मिले कबीर।।५००।।
अर्थ: एक शुद्ध मन और स्पष्ट बुद्धि धोखाधड़ी से मुक्त होती है। सतगुरु से मिलने से यह शुद्धता और बुद्धिमत्ता प्राप्त होती है।
Meaning: A pure mind and a clear intellect are free from deception. Meeting the True Guru ensures this purity and wisdom.
व्याख्या: इस दोहे में कबीर दास ने कहा है कि जब मन और बुद्धि शुद्ध होते हैं, तो व्यक्ति किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी से मुक्त होता है। सतगुरु की संगति से यह शुद्धता और समझ प्राप्त होती है।